शनिवार, 2 अगस्त 2008


मिशन इस्तांबुल

निर्देशक-अपूर्व लाखिया

संगीत-अनु मलिक और जाने कौन-कौन

आतंकवाद आज पूरी दुनिया की उभयनिष्ठ समस्या बना हुआ है। महाशक्ति अमरीका, ब्रिटेन समेत भारत इस नासूर का से त्रस्त का इलाज खोज रहा है। आतंकवाद पर हॉलीवु़ड और बॉलीवुड में कई फिल्में बन चुकी हैं। निर्देशक अपूर्व लाखिया की हालिया रिलीज फिल्म मिशन इस्तांबुल भी आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर बनी है। लेकिन अपूर्व की फिल्म में आज के आतंकवाद की तबाही मचाने वाली नई सोच को दिखाया गया है। फिल्म में चरमपंथी मीडियाकर्मियों का मुखौटा पहनकर एक जाने माने खबरिया चैनल अल जौहरा के अंदर बैठकर दुनियाभर में आतंक और दहशत का खेल खेलते हैं। अपूर्व ने फॉर्मुला फिल्म में भी नयापन का छौंका लगाया है। अपूर्व की पिछली फिल्म शूट आउट....में माया डोलास का दमदार किरदार निभाने वाले विवेक ओबरॉय ने इस फिल्म में भी शानदार काम किया है। दुर्भाग्य से उनके खाते में कम सीन थे। बाकी पलटन का काम औसत है। विशाल शेखर, प्रीतम और शंकर महादेवन की नई और प्रयोगधर्मी धुनों के आने के बाद लोगों द्वारा लगभग भुला दिए गये अनु मलिक ने फिल्म का संगीत तैयार किया है। अब वह इंडियन आयडल सरीखे नाटक नौटंकी वाले रियलिटी शोज में जज की भूमिका अदा करें तो उनके लिए वही बेहतर होगा। हां, अभिषेक बच्चन पर फिल्माया गया आयटम गीत जब बजता है तो लगता है फिल्म में संगीत भी है।फिल्म में शूटिंग तुर्की के खूबसूरत शहर इस्तांबुल में की गई है। कहानी के हिसाब से लोकेशन एकदम फिट बैठती है।

रविवार, 6 जुलाई 2008

एक महानगर का गुरूर


मैं महानगर हूं। किसी को पहचानता नहीं। सिर्फ अपनी हवस को जानता हूं। मैं सड़कों, पुलों, फ्लाई ओवरों, तेज रफ्तार से भागती गाड़ियों, बहुमंजिला इमारतों, शॉपिंग मॉल्स, दुकानों और दफ्तरों का ऐसा ठाठे मारता समंदर हूं, जिसमें सब डूब जाते हैं, गुम हो जाते हैं। लड़कियां यहां आती हैं बहुत सारे ख्वाब लेकर, ये भरोसा लेकर कि अपने छोटे शहरों और जान-पहचान के मुहल्लों के संकोच से उबर कर वो यहां कुछ कर सकेंगी। लेकिन यहां आकर वे पाती हैं कि सड़कें सिर्फ लंबी नहीं खूंखार भी हैं, कि बसों के भीतर उनकी जगह कितनी कम है, कि दफ्तरों में उनसे किन समझौतों की उम्मीद की जाती है, कि यहां उनके बाकी सारे रिश्ते गुम गए हैं- न कोई पिता है न भाई न दोस्त। बस वो एक लड़की हैं, जिसका एक जिस्म है..जिसे अगर वो बांटने को तैयार नहीं होती, जिसका सौदा करने को राजी नहीं होती तो उसे कई तरह की सजाएं भुगतनी पड़ती हैं। मैं महानगर हूं, इतना बड़ा हूं कि रुलाइयां मुझमें दब जाती हैं, सिसकियों का तो कोई वजूद ही नहीं बनता, मेरे भीतर छोटे शहरों की अनगिनत यादें तड़फड़ाती रहती हैं, अपने घरों को वापस लौटने की नामुमकिन सी इच्छा मेरे रोजमर्रा में पिसकर चूर-चूर हो जाती है.. मैं ताकत का वो गरूर हूं, कामयाबी का वो नशा हूं जिसके बड़ी जल्दी आदी हो जाते हैं लोग....वो भूलते चले जाते हैं अपना अतीत, अपने घर, घर में सीखे गए अपने संस्कार, किसी बचपन में सीखी गई अपनी मनाहियां...वो धीरे-धीरे लोग नहीं रह जाते हैं, मेरा पुर्जा बन जाते हैं। उनके भीतर सिर्फ इच्छाएं रह जाती हैं, सिर्फ कुछ हासिल करने की तड़प और न मिलने पर छीन लेने की आतुरता। इसी आतुरता की शिकार होती हैं वो मासूम लड़कियां...जो महानगर में अकेले निकलने का दुस्साहस करती हैं। मै महानगर हूं, लेकिन जंगल के कानून पर चलता हूं, कि जिसके हाथ में ताकत है उसकी मर्जी चलेगी.. और बाकी सारी इच्छाएं कुचल दी जाएंगी, बाकी सारे स्वाभिमान नष्ट कर दिए
साभार-बात पते की

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

गुलज़ार का जादू


जार-जार रोने और जोर-जोर से हंसने वाली, हर बात को, हर जज्बात को अति नाटकीय ऊंचाइयों तक ले जाने वाली मुंबइया फिल्मों की दुनिया में एक शख्स ऐसा आता है, जिसे मालूम है कि खामोशी भी बोलती है... कि बहते हुए आंसुओं से ज्यादा तकलीफ पलकों पर ठहरे मोती पैदा करते हैं...कि रुलाइयों से ज्यादा असरदार भिंचे हुए होठों के पीछे छुपाए गए दुख होते हैं।दरअसल, गुलज़ार ने हिंदी फिल्मों को कम बोलकर ज्यादा कहने का सलीका दिया। जिस दुनिया में हर फिल्म प्यार के कारोबार पर टिकी होती है, कदम-कदम पर मोहब्बत के नग्मे गाए जाते हैं, इश्क के ऐलान किए जाते हैं, वहां एक लहराती हुई आवाज इसरार करती है, "प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज नहीं, एक खामोशी है सुनती है, कहा करती है।"नूर की बूंद की तरह सदियों से सभ्यताओं को रोशन करने वाली मोहब्बत की ये शमा जब गुलज़ार ने थामी तो परवानों को जलाने का खेल पीछे छूट गया और लोगों ने देखी समंदर में परछाइयां बनाती, पानियों के छींटे उड़ाती और लहरों पर आती-जाती वह लड़की जो बहुत हसीन नहीं है, लेकिन अपनी मासूम अदाओं में बेहद दिलकश है। गुलज़ार आए तो अपने साथ नई कला लाए और रिश्तों की नई गहराई भी। उनके गानों में चांद तरह-तरह की पोशाकें पहनकर आता है, नैना सपने बंजर कर देते हैं और बताते हैं कि जितना देखोगे उतना दुख पाओगे।उनके यहां मोहब्बत सिर्फ जिस्मानी नहीं रह जाती, रूहानी हो उठती है। उनकी फिल्मों में वक्त एक उदास नायक की तरह टहलता दिखाई देता है। किसी सुचित्रा सेन और संजीव कुमार को उनके अतीत के दिनों में लौटाता हुआ, वहां फुरसत के रात-दिन हैं और मोहब्बत का हल्का-हल्का ताप है, लेकिन सबसे ज्यादा वह पुकार है, जो बाहर नहीं भीतर उतरती है। यह छोड़कर जाती नहीं, हमेशा साथ रहती है। याद दिलाती है कि खुद को पहचानने के लिए दूसरों को पहचानना भी जरूरी होता है और हमें एक-दूसरे को समझने की, महसूस करने की कुछ खामोश कोशिशें बनाती हैं।



साभार-बात पते की (प्रियदर्शन जी)

शुक्रवार, 27 जून 2008

बिग बी की प्रेस कांफ्रेंस और पत्रकारों का दिखावा- पार्ट वन





पिछले दिनों लखनऊ में अमिताभ बच्चन की प्रेस कांफ्रेंस थी। दिल्ली और मुम्बई तो बच्चन साहब गाहे बगाहे दसवें पंद्रहवें दिन पहुंचते रहते हैं। लेकिन लखनऊ जैसे शहर में तो आगमन बहुत ही कम होता है। क्योंकि अब समाजवादी की पार्टी की सरकार तो रही नहीं। वैसे भी मायावती सरकार आने के बाद यूपी में में जुर्म तो अपने आप ही कम हो गया। तो यूपी में अब बच्चन साहब का क्या काम। खैर वजह थी उनकी हालिया रिलीज फिल्म सरकार राज। फिल्म को तो लोग ज्यादा पसंद कर नहीं रहे तो फिल्म के निर्माता और निर्देशक रामगोपाल वर्मा, अमिताभ बच्चन को भारत भ्रमण करा रहे हैं ताकि मीडिया कवरेज मिले तो लोग गलती से फिल्म देखने की गलती कर दे।खैर अब मूल बिंदु पर आते हैं। राजधानी के पांच सितारा होटल ताज में कुछ ही देर में बिग बी अपनी बहू ऐशवर्या राय के साथ आने वाले हैं। आने के पहले का नजारा ये है कि हाल में कहीं भी पैर रखने की जगह नहीं है। प्रिंट के कई दर्जन फोटोग्राफर स्टेज के पास पोजीशन लिए खड़े हैं। चेहरे पर खौफ है कि कहीं सही फ्रेम नहीं बना तो संपादक डंडा कर देगा। कमोवेश यही हाल टेलीविजन के कैमरामैनों का है। खैर किसी तरह दैनिक जागरण के रिपोर्टर राजवीर ने मुझे अपने बगल में बैठने की जगह दे दी। उनके बगल में उसी अखबार के एक मठाधीश पत्रकार बैठे हुए थे। जो केवल बच्चन साहब को देखने आये थे। इसी बीच उनका फोन घनघनाया। चूंकि उनके एकदम बगल में था इसलिए फोन करने वाले की धीमी आवाज सुनाई पड़ रही थी। उसने महाशय से पूछा अरे मेरे काम का क्या हुआ? तो इन्होंने बताया कि यार पिछले काफी दिन से तबियत खराब था और आज तो होटल ताज में बैठा हूं, वो अमिताभ की प्रेस कांफ्रेंस है ना इसलिए। तभी एक मेरी मित्र पत्रकार जिनकी अगले साल शादी है, उनके पति का फोन आया। होने वाला पति पूछ रहा है कि यार दिन में फोन नहीं किया? तो वह कहती हैं कि अरे यार बड़ा काम था। अब देखो ना शाम को संपादक जी ने बोला कि अमिताभ बच्चन की प्रेस कांफ्रेंस में तुम्ही को जाना है। क्या यार इतना टाइट शेड्यूल रहता है कि पूछो मत। तभी उसके पति ने फोन अपनी मां को दे दिया तो उऌके कुछ पूछने से पहले ही ये कहती हैं कि मम्मी जी वो अमिताभ की प्रेस कांफ्रेंस में हूं इसलिए आवाज कट रही है।

बुधवार, 11 जून 2008

मंझोले महानगरों की शुरूआत से पहले झोलाछाप हकीमों की एडवर्टाइजिंग

इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस और जयपुर जैसे शहरों के बाहरी इलाकों जहां से ये शुरू होते हैं। सड़कों के किनारे अधबने मकान या दुकानें होती हैं। किसी की नींव भरी होती है। तो किसी में आधी दीवारें उठी होती हैं तो किसी ढ़ाचानुमा मकान में छत नहीं होती हैं। ये अधबने मकान उन लोगों के होते हैं, जो शहर में नये-नये जमीन खरीदते हैं या उन लोगों के, जिनकी सोच रहती है कि भई खरीद के डाल दो, कल बढ़कऊ की शादी होगी, परिवार बढ़ेगा। तो रहने के लिए ज्यादा ठौर की जरूरत पड़ेगी। रिश्तेदारी में कम से कम ये बताने को तो हो जाएगा कि मिश्रा जी का फाफामऊ में भी एक प्लाट है। फोकस हाई रहेगा। इसी के दम पर छोटकऊ की शादी का दहेज ४ लाख रूपये बढ़ जाएँगे। इस तरह के अधबने मकानों से झोलाछाप हकीमों की एडवर्टाइजिंग वाली दुकान चल निकलती है। उन्हें अपने प्रचार के लिए मुंशी पार्टी से होर्डिंग किराए पर लेने का लेने का लफड़ा नहीं रहता। तो एक नज़र डालते हैं उन झोलाछाप हकीमों के एडवर्टाइडिंग के मजनून पर---------------
१- निसंतान, काम में असफल सैक्स रोगी मिले बुधवार को हकीम उस्मानी से, मस्जिद वाला मोड़ करेली इलाहाबाद।
२-सैक्स रोगियों के लिए एक मात्र जगह जहां हैं इलाज की पूरी गारंटी-मिले हर शुक्रवार-हकीम आमिर जुबैर, छाता मार्केट के पीछे, चौक, पुराना लखनऊ।
३-काम में असफल रोगी अब निराश न हो, मिले रविवार को-इलाज की पूरी गारंटी-हकीम आबिद नुरानी, पुराने पुल के सामने, लाल मस्जिद, जयपुर
४- कासिम मलिक का दवाखाना-सैक्स रोगी मिले-बुधवार को-शकरपुर फ्लाईओवर-नई दिल्ली।
ये कुछ ऐसे हकीम होते हैं जो सेक्स रोगियों को बेवकूफ बनाकर हिंदुस्तान के लगभग हर शहर में अपनी दुकान चलाते हैं। इस तरह के एडवर्टाइडिंग दिखनी शुरू हो जाय तो समझ लो कि आप जिस शहर जा रहे हैं वो आने वाला है।

बुधवार, 4 जून 2008

बुंदेलखंड यानी बिकाऊ आइटम




बुंदेलखंड पिछले कुछ समय से खबरिया चैनलों और अखबारों के लिए बिकाऊ आइटम बना हुआ है। उस इलाके के इर्द गिर्द होने वाली घटनाओं को भी ज्यादा बिकाऊ बनाने के लिए लोग बुंदेलखंड का नाम लगा देते हैं। इस दौरान बुंदेलखंड से कई सौ किलोमीटर दूर बैठकर वहां की एक्सक्लूसिव खबरें कानपुर और लखनऊ से बैठकर ही अखबार के लोगों ने दर्जनों वाईलाइन इकट्टा कर लीं। साहब आलम ये है कि बुंदेलखंड का कोई कुत्ता भी आजकल अगर मर जाता तो उसे अच्छा-खासा कवरेज मिल जाता है।आखिर बुंदेलखंड क्यों? विदर्भ क्यों नहीं ? जहां कि स्थिति शायद बुंदेलखंड से ज्यादा बत्तर है। वहां बुंदेलखंड से कई गुना लोगों ने खुदखुशी कर चुके हैं। मुझे इसका एक ये कारण समझ में आता है कि बुंदेलखंड का इस्तेमाल राजनीतिक दल चुनावी मुद्दा बनाकर हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। विदर्भ के साथ ऐसा नहीं हो रहा है। साथ ही बुंदेलखंड में राहुल गांधी ने ज्यादा दौरे किए हैं। एक दिग्गज अँग्रेजी अखबार के लखनऊ संस्करण के पहले पन्ने पर एक खबर छपी है कि (फूड लूट इन बुंदेलखंड) मतलब एक ऐसी वारदात जिसमें रोटियों की लूट हो गई है। ये पहला ऐसा मौका है जब इस इलाके में इस तरह की घटना हुई है। वगैरह-वगैरह। खैर खबर बड़े अखबार के पहले पेज पर थी , तो उसका फॉलो-अप तो होना ही था। आज मैंने वहां से पुलिस अधिकारियों और कुछ स्थानीय लोगों से बात की तो घटना का एंगल छपी खबर के एंगल से एकदम अलहदा निकला। पुलिस अधिकारियों ने फोन उठाते ही नाराजगी जताते हुए कहा कि आप लोग मामले को क्या से क्या बना देते हैं। आप लोग अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं। ऐसा ही रहा तो लोगों की विश्वनीयता खत्म हो जाएगी....वगैरह-वगैरह। मैंने सोचा कि यार अकाल पीड़ित बुंदेलखंड के नाम पर लोग क्या-क्या कर रहे हैं। ये एक चिंता का विषय है। हमें मंथन करना होगा कि अपनी खबरों को सनसनीखेज खोज बनाने के लिए उन पहलुओं को न सामने लाएं जो शायद वास्तविक हैं ही नहीं।

रविवार, 1 जून 2008

जन्नत- है दम


कैंप-भट्ट कैंप(विशेष फिल्म्स)
निर्देशक-कुनाल देशमुख
संगीतकार-प्रीतम


पिछले दिनों भट्ट साहब की नई नवेली पेशकश जन्नत देखा। अपनी हर फिल्म का तरह इस फिल्म में भी भट्ट साहब बॉलीवुड के सामने कई नये चेहरे लाने वाले वादे में खरे उतरे। जन्नत की पूरी नई टीम वाकई तारीफ के काबिल है। जिस तरह फिल्म को आईपीएल रूपी इंटरटेनिंग सुनामी के बीच में रिलीज करने का जोखिम लिया गया था, ऐसे में अगर निर्देशक कुनाल देशमुख की कहानी और निर्देशन में जरा भी ढ़ील होती तो इसका भी हाल टशन से कम बुरा नहीं होता। जैसा कि पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के कोच बॉब वूल्मर की हत्या के बाद भट्ट साहब ने ऐलान किया था कि वह उनके ऊपर फिल्म बनाकर एक ट्रिब्यूट देंगे। वो उन्होंने किया लेकिन सिर्फ २ मिनट के एक सीन में निपटाकर। फिल्म की कहानी उन्होंने बड़ी ही चालाकी से कोच से सट्टेबाज की तरफ घुमा दी। वे भी मजबूर थे, क्योंकि सट्टेबाज का रोल तो उनका भांजा इमरान हाशमी कर रहा था। पूरी फिल्म में इमरान का काम सबसे शानदार है। वह दिन दूर नहीं जब वह एक फिल्म के लिए सात से आठ करोड़ मेहनताना मांगकर खान तिकड़ी को चौंका दें। सीबीआई इंस्पेक्टर का रोल कर रहे समीर कोचर ने भी अपनी पर्सनॉल्टी से दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब रहे हैं। फिल्म के कुछ और सीन अगर उनके हिस्से में आते तो शायद वह जन्नत को इमरानी प्रकोप से बचाने में कामयाब हो जाते। फिर भी लड़कियों ने इमरान से ज्यादा उनकी सैंडविच खाकर केस सुलझाने की स्टाइल को ज्यादा पसंद किया है। फिल्म की पैकेजिंग और संगीत इसकी जान है। पूर्व क्रिकेटरों पर किया गया एक कमेंट बहुत ही प्रासंगिग लगता है। जिसमें सट्टेबाज अर्जुन एक क्रिकेटर को बिकने के लिए नोटों के हरे-भरे सब्जोबाग दिखाते हुए कह रहा होता है कि एक्स क्रिकेटर का कोई फ्यूचर नहीं होता। वे या तो किसी न्यूज चैनल में बैठकर कमेंट्री करते हैं या फिर किसी लाफ्टर शो में बैठकर खीस निपोरते हैं।जन्नत के संगीतकार प्रीतम को तो जैसे युवाओं की पसंद का पासवर्ड मिल गया हो, अभी उनकी पिछली फिल्म रेस के गाने डिस्कोथेकों में बजने बंद नहीं हुए थे कि जन्नत के गानों ने धूम मचाना शुरू कर दिया। फिल्म में सिनेमैटोग्राफी बहुत ही शानदार है। द.अफ्रीकी शहर जोहांसबर्ग से समुद्री किनारों से लेकर, गगनचुम्बी बिल्डिगों और वहां के मैदानों की हरी घास को बहुत ही मास्टरी से दिखाया गया है।

सोमवार, 19 मई 2008

खुदा के लिए-धांसू लग रही है



हाल ही मैंने पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए का ट्रेलर टीवी पर देखा। फिल्म के सारे गानों को तो नहीं सुन पाया पर जो गाना मैंने देखा उसका संगीत तो लाजवाब था। फिल्म के दृश्य बड़ी ही मास्टरी से फिल्माए गए लग रहे थे। कुल मिलकार प्रथम दृष्टा फिल्म बहुत ही शानदार लग रही थी। आमतौर पर पाकिस्तानी फिल्मी तकनीकी रूप से बॉलीवुड की फिल्मों की तुलना में थोड़ी उन्नीस होती हैं। उसका भी एक कारण है वहां न तो बच्चन साबह की तरह कोई मेगास्टार है और न ही यशराज फिल्म्स जैसा कोई मालदार बैनर। अपने मुम्बई फिल्मी मठाधीशों ने भी फिल्म को लेकर शानदार प्रतिक्रिया दी है। काफी कुछ अच्छा लिखा है। इस बार के सप्ताहिक अवकाश में इस निपाटने का मन बना लिया है।

रविवार, 2 मार्च 2008

मुंहफट बादशाह


लगता है बॉलीवुड के बादशाह शाहरुख खान को बड़बोलेपन के पतिंगे ने डस लिया है। इसीलिए आजकल वह किसी को भी कुछ भी बोल देते हैं। पिछले दिनों फिल्मफेयर पुरस्कारों के दौरान उन्होंने सैफ अली खान के साथ मिलकर बॉलीवुड के तमाम नायकों की खिल्ली तो उड़ाई ही, साथ ही फिल्म आलोचकों को अपने लपेटे में लिया। हद तो तब हो गई जब उन्होंने आलोचकों के साथ-साथ उनकी मां और बहनों पर भी फब्तियां कसीं।बेचारे आलोचकों ने शाहरुख के दरबारी चमचों की तरह ओम शांति ओम में उनके अभियन के गुणगान नहीं गाये, तीन महीने से दबे गुस्से और प्रतिशोध की उल्टी शाहरुख ने फिल्मफेयर में कर दी। इस दौरान उन्होंने खिलाड़ी अक्छय कुमार को लेकर भी खूब चुटकियां लीं. आमिर और सलमान का भी माखौल उड़ाया। असल में जिस तरह से अक्छय कुमार की फिल्मों को लेकर टिकट खिड़की पर मारामारी होने लगी है उससे किंग खान को अपना सिंहासन के आसपास भूकम्प जैसी स्थिति का पूर्वाभास होने लगा है। उन्हें यह कतई नागवार गुजरा कि वेलकम ने ओम शांति ओम से ज्यादा की धन उगाही की। एक समय वक्त हमारा है और ऐलान जैसी दर घटियापे की फिल्में करने वाले अक्छय कुमार से आज उन्हें सुपरिस्टारी ताज को खतरा महसूस होने लगा है।शहंशाह अमिताभ बच्चन पर तो वह महीने दो महीने में तीखे प्रहार करते ही रहते हैं, पर शाहरुख को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इस जमाने ने ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार और किंग ऑफ रोमांस राजेश खन्ना को भुला दिया, तो वह किस खेत की शकरकंद हैं। विनम्रता किसी भी सुपरस्टार को महान बनाती है। हमें शाहरुख और उनकी चक दे इंडिया और स्वदेस जैसी फिल्मों पर गर्व है, पर जिस तरह से वह बड़बोलापन दिखा रहे हैं वह उनकी तरह के किसी भी सितारे को शोभा नहीं देता। लोकिन सैफ अली खान का बड़बोलापन लोगों की समझ से परे है.....? आखिर वो इतना क्यों इतरा रहे थे...? शायद अभी वह इस जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं है कि जो भी उनकी फिल्में सफल हुई हैं, वो उनके अभिनय नहीं अपितु यशराज बैनर और गरमागरम दृश्यों की वजह से। आज भी दर्शक उनके नाम पर मल्टीप्लेक्स में टिकट खरीदते समय दलदल में फंसने जैसा खतरा महसूस करता है।

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

गलतफहमियों की पतंग

नाजुक रिश्तों के धागे में,
आ के लिपट जाती है,
गलतफहमियां की पतंग,
वह ऐसे उलझाती है कि
हम उसे हटाने में उलझा देते हैं पूरा धागे।।
हम बेबस हो जाते हैं,
पर कोई नहीं आता मदद को,
सभी हमें ठहराते हैं जिम्मेदार,
काश, कोई मुझे समझता कि
मैं नहीं हूं पतंगबाज।।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

सिनेमाई पटल पर छाये नौनिहाल


बॉलीवुड में निर्देशकों की नई खेप के आने के बाद सिनेमा की हर विधा में बदलाव नजर आए। कहानी, पटकथा, संगीत से लेकर किरदारों को पेश करने के तरीके में सिनेमा में दबंग हुआ है। निर्देशकों की नई पीढ़ी खतरों से खेलने की बड़ी शौकीन है। तारे जमीन पर में आमिर खान ने दर्शील सफारी को फिल्म का हीरो बनाकर दबंग सिनेमा की मिसाल पेश की है। इस फिल्म में आमिर ने इस मिथ को तोड़कर दिखाया कि बच्चे सिर्फ हीरो के बचपन का रोल ही नहीं कर सकते, अगर उन्हें मौका दिया जाय तो वह ऐसी अदाकारी दिखाएंगे कि फिल्मफेयर की जूरी को बेस्ट एक्टर का चुनाव करते समय पसीना आ जाएगा। हालांकि आमिर से पहले समीर कार्णिक नन्हें जैसलमेर, विशाल भारद्वाज ब्लू अम्ब्रेला, केन घोष की चेन कुली की मेन कुली और साजिद खान की हे बेबी में नई पौध को मुख्य किरदार में पेश करके इसकी झलक दिखा चुके हैं. आज से कुछ साल पहले तक बच्चों में बॉलीवुड ने खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। उनको केवल हीरो का बचपना दिखाने के लिए फिल्म में लिया जाता था। बीच में अगर कुछ गिनी चुनी फिल्में आईं भी, तो वो अमिताभ, शाहरुख और रितिक की फिल्मों के शोर में खो गईं. मगर अब बच्चों को लेकर फिल्में बनाना फायदे का सौदा साबित हो रहा है। जबसे मकड़ी ने ७५ लाख और हनुमान ने तीन करोड़ का बिजनेस किया है तबसे बॉलीवुड ने बच्चों को लेकर और बच्चों के लिए फिल्म बनाने के लिए गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया है। आज बच्चों को एक बड़े उपभोक्ता के तौर पर देखा जाने लगा है।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

लव गुरू बनना सबके बस की बात नहीं


आमतौर पर रेडियो सुनना कभी कभार ही होता है. ठीक उसी तरह जैसे कभी याद आया तो आमलेट खा लिया.पर एक दिन अचानक सोते समय रात को थोड़ा परेशान था, सामने रेडियो देखा तो सोचा कि चलो गाना सुनकर टेशन दूर किया जाय. जैसे ही गाना खत्म हुआ कि एक लड़की की आवाज आई कि लव गुरू मैं एक लड़के से प्यार करती हूं पर वह मुझसे प्यार करता है कि नहीं ये पता नहीं. मैं क्या करू. लव गुरू ?? लव गुरू ने उसे बहुत ही बढ़िया तरकीब सुझाई. उसे बाद एक लड़के का फोन आया कि लव गुरू मेरे ऊपर दो लाख रुपये का उधार हो गया है मैं क्या करूं....लव गुरू ने उसको भी समझदारी से उधार चुकाने की तरकीब बताई. मैंने सोचा कि यार ये लव गुरू की नौकरी तो बड़ी मुड़पिरी वाली है. पोर्टनर में सलमान खान तो भास्कर दिवाकर चौधरी जैसे दो चार और फ्रस्टेटेड के केवल प्यार मुहब्बत वाले केस हंडल करते थे पर रेडियो सिटी वाला लव गुरू तो देशव्वापी समस्यायें हंडल करता है. मैंने सोचा कि यार ये लव गुरू बनना आसान नहीं. ये बिना किसी स्वार्थ के सबकी सेवा करता है. बेचारा एसटीडी फोन भी खुद अपनी तरफ से ही करता है. कहते हैं कि रिश्तों का बंधन इतना नाजुक होता है कि तनिक भी गलतफहमी ये यह टूट जाता है। ऐसे में लव गुरू युवाओं को ऐसे कारगर टिप्स देता है, जिससे बिगड़े रिश्ते भी बन जाते हैं। आखिर में फिर से लव गुरू आपको सलूट मारता हूं कि गुरू तुम दुनिया का सबसे कठिन काम रहे हो।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

नई पीढ़ी के कवि




प्रसून जोशी, जयदीप साहनी, सैयद कादरी, अनुराग कश्यप और नीलेश मिश्रा की कलम एक नये तरह की कविता और कहानी रच रही हैं, ये लोग न तो किसी आनंद बक्शी के पोते हैं और न ही मुख्यधारा के साहित्यकार. ये शब्दों के ऐसे हरफनमौला खिलाड़ी हैं, जैसे ट्वेंटी-२० क्रिकेट के युवराज सिंह और धौनी. ये पद्मावत, लज्जा और फाइव प्वाइंट समवन जैसे उपन्यास नहीं लिखते पर सत्या, रंग दे बसंती, तारे जमीन पर और चक दे इंडिया जैसी फिल्में लिखते हैं, जो किसी सरोकारी उपन्यास से कम नहीं है. इनकी कवितायें आम जनसानस की तस्वीर पेश करतीं है. इनकी कविताओं में अनजान, बक्शी साहब और इंदीवर जैसे गीतकारों द्वारा प्यार, दिल, धड़कन, तड़पन, मुहब्बत जैसे दशकों से चले आ रहे घिसे पिटे ४०-५० शब्द नहीं हैं. इनकी कविता असाढ़ की बारिश की पहली बूंद और सावन की सुआपंखी घास के नये कोपल की तरह ताजी होती है. ये छायावादी कवियों की तरह ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, जिनका अर्थ समझने के लिए हमें पहले व्याकरण में स्नातक होना पड़े. ये ठंड़ा मतलब कोका कोला, आदमी फोन लेता है बात करने के लिए और इसको लगाया तो लाइफ झिंगालाला, चांद सिफारिस.......जैसी लाइनें लिखते हैं, जिन्हें सुनकर आम आदमी को लगता है कि वाकई ये उनकी भाषा है, उनकी आवाज है. न कि केवल प्रोफेसर जटाशंकर शास्त्री जैसे विद्वानों की. चक दे इंडिया का गाना
बादल पे पांव है, या छोटा गांव है....
तारे जमीन पर का
क्या इतना बुरा हूं मैं मां......
रंग दे बसंती का
तुन बिन बताये...
ये ऐसी कवितायें हैं, जिनमें हमारे आस-पास की आबोहवा की महक महसूस होती है. इन्हें सुनकर गुलजार का सीना भी फक्र से कुर्ते के बटन तोड़ता होगा. तभी वह आजकल बीड़ी जलाइले....जैसा सीनाफाड़ हिट गाना लिख रहे हैं. उनके सखा जावेद अख्तर भी बाते साल तेरी याद साथ है.....जैसा नसघोलू जोशीला गाना लिखते हैं. प्रसून और जयदीप भले ही हार्ड कोर ऑफिशियल साहित्कार न हों पर इतना तो है कि ये आम आदमी और बाजार के कवि जरूर हैं. ये नई पीढ़ी के गुलजार हैं.

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

दर्शील सफारी-छोरे में है दम


मार्च में होने वाले फिल्म फेयर पुरस्कारों में दर्शील सफारी को साल के सबसे बेहतरीन एक्टर वाली टोली में नामांकन मिलने से बॉलीवुड़ के मठाधीश मारे चिंता के दुबले हुए जा रहे हैं, कि कहीं नाटू दर्शील बादशाद खान पर भारी ना पड़ जाए. जिसने भी फिल्म देखी है, उसका सारे सिक्स पैक एब्स वाले मेट्रोसेक्सुअल नायकों से मोहभंग हो गया है और वो सिर्फ दर्शील नाम की ही बांसुरी पिपिहा रहा है. वैसे तारीफ करनी होगी आमिर खान की पारखी नज़र की, जिसे जमीन के दस फुट अंदर धंसा खजाना बिना पुरातत्व विभाग का चश्मा लगाये ही नजर आ जाता है. खुद की जेब ढ़ीली करने और चिकने-चुपड़े चॉकलेटी होने के बावजूद भी उन्होंने अपनी फिल्म में दर्शील जैसे उदन्त बछड़े को मैदान में उतारने का चिकनगुनिया रूपी जोखिम लिया. वरना तो आजकल के बड़े स्टार घर की फिल्म में किसी दूसरे को साइड रोल देने में कई दिन घर में डिस्कशन करते हैं. रोल देते हैं भी तो पटकथा लेखकों पर दबाव बनाकर उस किरदार को इतना कमजोर करवा देते हैं कि वो बेचारा पूरी फिल्म में बीमार नज़र आता है.तारे जमीन पर बनाकर आमिर ने इस बार खुद को ज्यादा हिम्मती साबित किया बजाय दिल्ली के जंतर-मंतर में नर्मदा बांध के खिलाफ आवाज उठाने के. बिना छरहरी नायिका और बिना कम कपड़ों वाली आइटम गर्ल के आमिर ने इस साधारण सी कहानी को लेकर बहुत संवेदनशील फिल्म बनाई, मायानगरी के गुलजार पार्ट-२ प्रसून जोशी ने अपनी कविता और शंकर-एहसान-लॉय की बाजा पेटी तिकड़ी ने आमिर का बखूबी साथ दिया. वैसे चक दे इंडिया में काम तो शाहरुख ने भी धांसू किया है. कम से कम फिल्म देखने के बाद हमारी हॉकी टीम ने एशिया कप तो जीता और देश में कुछ महीने लोग क्रिकेट बुखार से चंगे होकर के हॉकी बुखार की चपेट में आये. अवार्ड किसी को भी मिले काम दोनों का शानदार था. बच्चे दर्शील को मिलेगा तो इससे उसे तो हौसला मिलेगा ही साथ ही हौसला मिलेगा दूसरे फिल्ममेकर्स को कम से कम देखादेखी ही फिल्में बनाएँगे, हौसला मिलेगा अमोल गुप्ते जैसे तमाम और नई पीढ़ी के पटकथा लेखकों को.