सोमवार, 8 जून 2009

मैं वही का वही हूं




कहते हैं कि परिवर्तन यानी बदलाव(चेंज) प्रकृति का नियम है और इससे दुनिया का कोई भी जीव-जंतु अछूता नहीं रह पाता है। लेकिन न जाने क्यों मुझे अपने जीवन में कोई बदलाव नहीं महसूस हो रहा। लगता है कि मैं वही का वही हूं।

चिंतन करता हूं कि पिछले कई सालों में दुनिया कितनी बदल गई पर मैं वही बासी और पुराना हूं। हर तरफ बदलाव की बयार बही। मुल्कों की सरकारें बदल गईं। पिछले एक दशक से ह्वाइट हाउस में जमे रुतबेदार प्रेसिडेंट जार्ज बुश की जगह अमरीका में ओबामा ने गद्दी संभाल ली।
सात घंटे में खत्म होने वाले 50 ओवर के वन डे मैच की जगह ट्वेंटी-20 क्रिकेट के रूप में फटाफट क्रिकेट ने लगभग ले ली।

बालीवुड में यश चोपड़ा, सुभाष घई, सूरज बड़जात्या, रामगोपाल वर्मा की बड़े बजट की भव्य फिल्में भव्य फ्लाप होने लगीं, लोग दसविदानिया, भेजा फ्राई, देव-डी, गुलाल और वेडनेस डे जैसी दो-तीन करोड़ की फिल्मों को सराहने लगे।

टेलीविजन में अब तुलसी और पार्वती के दिन लद गये। शायद दर्शकों को उनसे उतना लगाव नहीं रहा। अब अक्षरा, बेबो, आरोही, ज्योति, गुंजन टेलीविजन के प्राइम टाइम की नई नायिकायें हो गईं।

वैसे बदलाव मैं अपने आस-पास भी देख रहा हूं। पिछले लगभग तीन सालों से लखनऊ में हूं। यहां के कई पार्क कई दफा टूटकर फिर से बन गये। शहर में हरियाली की जगह चारों तरफ पत्थर के हाथी और पुतले उगने लगे। कई बरिस्ता, कैफे काफी डे, मैक-डोनाल्ड्स और मल्टीप्लेक्स खुल गये। लेकिन मेरा जीवन शायद पहले से ज्यादा ऊबाऊ हो गया है।



लब्बोलुआब यह कि सारे जहां में परिवर्तन रूपी आक्सीजन बह रही है, लेकिन मेरी जिंदगी में वही बोरियत और अकेलापन है। नयापन महसूस ही नहीं कर पा रहा हूं। मन अजीब सी उधेड़बुन में लगा रहता है। सोच रहा हूं कि कई सालों से लगातार एक ही रूट पर जा रही जिंदगी की रेलगाड़ी की चेनपुलिंग करके किसी छोटे से स्टेशन पर उतर जाऊं। कोई काम न करूं, जो मन करे वो करूं। बारिश होती रहे मैं किसी जंगल में शरपत के छप्पर के नीचे बैठकर दूर-दूर तक केवल निहारता रहूं।

अरविंद ।।