रविवार, 6 जुलाई 2008

एक महानगर का गुरूर


मैं महानगर हूं। किसी को पहचानता नहीं। सिर्फ अपनी हवस को जानता हूं। मैं सड़कों, पुलों, फ्लाई ओवरों, तेज रफ्तार से भागती गाड़ियों, बहुमंजिला इमारतों, शॉपिंग मॉल्स, दुकानों और दफ्तरों का ऐसा ठाठे मारता समंदर हूं, जिसमें सब डूब जाते हैं, गुम हो जाते हैं। लड़कियां यहां आती हैं बहुत सारे ख्वाब लेकर, ये भरोसा लेकर कि अपने छोटे शहरों और जान-पहचान के मुहल्लों के संकोच से उबर कर वो यहां कुछ कर सकेंगी। लेकिन यहां आकर वे पाती हैं कि सड़कें सिर्फ लंबी नहीं खूंखार भी हैं, कि बसों के भीतर उनकी जगह कितनी कम है, कि दफ्तरों में उनसे किन समझौतों की उम्मीद की जाती है, कि यहां उनके बाकी सारे रिश्ते गुम गए हैं- न कोई पिता है न भाई न दोस्त। बस वो एक लड़की हैं, जिसका एक जिस्म है..जिसे अगर वो बांटने को तैयार नहीं होती, जिसका सौदा करने को राजी नहीं होती तो उसे कई तरह की सजाएं भुगतनी पड़ती हैं। मैं महानगर हूं, इतना बड़ा हूं कि रुलाइयां मुझमें दब जाती हैं, सिसकियों का तो कोई वजूद ही नहीं बनता, मेरे भीतर छोटे शहरों की अनगिनत यादें तड़फड़ाती रहती हैं, अपने घरों को वापस लौटने की नामुमकिन सी इच्छा मेरे रोजमर्रा में पिसकर चूर-चूर हो जाती है.. मैं ताकत का वो गरूर हूं, कामयाबी का वो नशा हूं जिसके बड़ी जल्दी आदी हो जाते हैं लोग....वो भूलते चले जाते हैं अपना अतीत, अपने घर, घर में सीखे गए अपने संस्कार, किसी बचपन में सीखी गई अपनी मनाहियां...वो धीरे-धीरे लोग नहीं रह जाते हैं, मेरा पुर्जा बन जाते हैं। उनके भीतर सिर्फ इच्छाएं रह जाती हैं, सिर्फ कुछ हासिल करने की तड़प और न मिलने पर छीन लेने की आतुरता। इसी आतुरता की शिकार होती हैं वो मासूम लड़कियां...जो महानगर में अकेले निकलने का दुस्साहस करती हैं। मै महानगर हूं, लेकिन जंगल के कानून पर चलता हूं, कि जिसके हाथ में ताकत है उसकी मर्जी चलेगी.. और बाकी सारी इच्छाएं कुचल दी जाएंगी, बाकी सारे स्वाभिमान नष्ट कर दिए
साभार-बात पते की

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

गुलज़ार का जादू


जार-जार रोने और जोर-जोर से हंसने वाली, हर बात को, हर जज्बात को अति नाटकीय ऊंचाइयों तक ले जाने वाली मुंबइया फिल्मों की दुनिया में एक शख्स ऐसा आता है, जिसे मालूम है कि खामोशी भी बोलती है... कि बहते हुए आंसुओं से ज्यादा तकलीफ पलकों पर ठहरे मोती पैदा करते हैं...कि रुलाइयों से ज्यादा असरदार भिंचे हुए होठों के पीछे छुपाए गए दुख होते हैं।दरअसल, गुलज़ार ने हिंदी फिल्मों को कम बोलकर ज्यादा कहने का सलीका दिया। जिस दुनिया में हर फिल्म प्यार के कारोबार पर टिकी होती है, कदम-कदम पर मोहब्बत के नग्मे गाए जाते हैं, इश्क के ऐलान किए जाते हैं, वहां एक लहराती हुई आवाज इसरार करती है, "प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज नहीं, एक खामोशी है सुनती है, कहा करती है।"नूर की बूंद की तरह सदियों से सभ्यताओं को रोशन करने वाली मोहब्बत की ये शमा जब गुलज़ार ने थामी तो परवानों को जलाने का खेल पीछे छूट गया और लोगों ने देखी समंदर में परछाइयां बनाती, पानियों के छींटे उड़ाती और लहरों पर आती-जाती वह लड़की जो बहुत हसीन नहीं है, लेकिन अपनी मासूम अदाओं में बेहद दिलकश है। गुलज़ार आए तो अपने साथ नई कला लाए और रिश्तों की नई गहराई भी। उनके गानों में चांद तरह-तरह की पोशाकें पहनकर आता है, नैना सपने बंजर कर देते हैं और बताते हैं कि जितना देखोगे उतना दुख पाओगे।उनके यहां मोहब्बत सिर्फ जिस्मानी नहीं रह जाती, रूहानी हो उठती है। उनकी फिल्मों में वक्त एक उदास नायक की तरह टहलता दिखाई देता है। किसी सुचित्रा सेन और संजीव कुमार को उनके अतीत के दिनों में लौटाता हुआ, वहां फुरसत के रात-दिन हैं और मोहब्बत का हल्का-हल्का ताप है, लेकिन सबसे ज्यादा वह पुकार है, जो बाहर नहीं भीतर उतरती है। यह छोड़कर जाती नहीं, हमेशा साथ रहती है। याद दिलाती है कि खुद को पहचानने के लिए दूसरों को पहचानना भी जरूरी होता है और हमें एक-दूसरे को समझने की, महसूस करने की कुछ खामोश कोशिशें बनाती हैं।



साभार-बात पते की (प्रियदर्शन जी)