
प्रसून जोशी, जयदीप साहनी, सैयद कादरी, अनुराग कश्यप और नीलेश मिश्रा की कलम एक नये तरह की कविता और कहानी रच रही हैं, ये लोग न तो किसी आनंद बक्शी के पोते हैं और न ही मुख्यधारा के साहित्यकार. ये शब्दों के ऐसे हरफनमौला खिलाड़ी हैं, जैसे ट्वेंटी-२० क्रिकेट के युवराज सिंह और धौनी. ये पद्मावत, लज्जा और फाइव प्वाइंट समवन जैसे उपन्यास नहीं लिखते पर सत्या, रंग दे बसंती, तारे जमीन पर और चक दे इंडिया जैसी फिल्में लिखते हैं, जो किसी सरोकारी उपन्यास से कम नहीं है. इनकी कवितायें आम जनसानस की तस्वीर पेश करतीं है. इनकी कविताओं में अनजान, बक्शी साहब और इंदीवर जैसे गीतकारों द्वारा प्यार, दिल, धड़कन, तड़पन, मुहब्बत जैसे दशकों से चले आ रहे घिसे पिटे ४०-५० शब्द नहीं हैं. इनकी कविता असाढ़ की बारिश की पहली बूंद और सावन की सुआपंखी घास के नये कोपल की तरह ताजी होती है. ये छायावादी कवियों की तरह ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, जिनका अर्थ समझने के लिए हमें पहले व्याकरण में स्नातक होना पड़े. ये ठंड़ा मतलब कोका कोला, आदमी फोन लेता है बात करने के लिए और इसको लगाया तो लाइफ झिंगालाला, चांद सिफारिस.......जैसी लाइनें लिखते हैं, जिन्हें सुनकर आम आदमी को लगता है कि वाकई ये उनकी भाषा है, उनकी आवाज है. न कि केवल प्रोफेसर जटाशंकर शास्त्री जैसे विद्वानों की. चक दे इंडिया का गाना
बादल पे पांव है, या छोटा गांव है....
तारे जमीन पर का
क्या इतना बुरा हूं मैं मां......
रंग दे बसंती का
तुन बिन बताये...
ये ऐसी कवितायें हैं, जिनमें हमारे आस-पास की आबोहवा की महक महसूस होती है. इन्हें सुनकर गुलजार का सीना भी फक्र से कुर्ते के बटन तोड़ता होगा. तभी वह आजकल बीड़ी जलाइले....जैसा सीनाफाड़ हिट गाना लिख रहे हैं. उनके सखा जावेद अख्तर भी बाते साल तेरी याद साथ है.....जैसा नसघोलू जोशीला गाना लिखते हैं. प्रसून और जयदीप भले ही हार्ड कोर ऑफिशियल साहित्कार न हों पर इतना तो है कि ये आम आदमी और बाजार के कवि जरूर हैं. ये नई पीढ़ी के गुलजार हैं.
बादल पे पांव है, या छोटा गांव है....
तारे जमीन पर का
क्या इतना बुरा हूं मैं मां......
रंग दे बसंती का
तुन बिन बताये...
ये ऐसी कवितायें हैं, जिनमें हमारे आस-पास की आबोहवा की महक महसूस होती है. इन्हें सुनकर गुलजार का सीना भी फक्र से कुर्ते के बटन तोड़ता होगा. तभी वह आजकल बीड़ी जलाइले....जैसा सीनाफाड़ हिट गाना लिख रहे हैं. उनके सखा जावेद अख्तर भी बाते साल तेरी याद साथ है.....जैसा नसघोलू जोशीला गाना लिखते हैं. प्रसून और जयदीप भले ही हार्ड कोर ऑफिशियल साहित्कार न हों पर इतना तो है कि ये आम आदमी और बाजार के कवि जरूर हैं. ये नई पीढ़ी के गुलजार हैं.
5 टिप्पणियां:
बहुत बढिया टिप्पणी. बधाई. अब यहाँ करें कि एक-एक कर इन गीतकारों-कवियों पर ज़रा विस्तार से लिखें. इस बात की बहुत ज़रूरत है. मेरी शुभकामनाएं.
अच्छा लिखा है । जारी रहे श्रृंखला
काफी अच्छा लिखा है...आपके लेखन में शब्दों का आकाल नहीं है...आप भी कहीं बीड़ी जलइले न कर लें...शानदार.. मेरी शुभकामनाएं
आपकी और अग्रवाल साहब की बात से सहमत
शायद मेरी बात किसी को बुरी लगे पर ये मास के कवि हैं। इनकी एक कविता यानी गाने को करोडो लोग सैकडों बार बाथरूम में गुनगुनाते हैं। अच्छा मूड होता है तो बार बार याद करते हैं।
sahi hai.jari rahe bahas.
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