शुक्रवार, 27 जून 2008

बिग बी की प्रेस कांफ्रेंस और पत्रकारों का दिखावा- पार्ट वन





पिछले दिनों लखनऊ में अमिताभ बच्चन की प्रेस कांफ्रेंस थी। दिल्ली और मुम्बई तो बच्चन साहब गाहे बगाहे दसवें पंद्रहवें दिन पहुंचते रहते हैं। लेकिन लखनऊ जैसे शहर में तो आगमन बहुत ही कम होता है। क्योंकि अब समाजवादी की पार्टी की सरकार तो रही नहीं। वैसे भी मायावती सरकार आने के बाद यूपी में में जुर्म तो अपने आप ही कम हो गया। तो यूपी में अब बच्चन साहब का क्या काम। खैर वजह थी उनकी हालिया रिलीज फिल्म सरकार राज। फिल्म को तो लोग ज्यादा पसंद कर नहीं रहे तो फिल्म के निर्माता और निर्देशक रामगोपाल वर्मा, अमिताभ बच्चन को भारत भ्रमण करा रहे हैं ताकि मीडिया कवरेज मिले तो लोग गलती से फिल्म देखने की गलती कर दे।खैर अब मूल बिंदु पर आते हैं। राजधानी के पांच सितारा होटल ताज में कुछ ही देर में बिग बी अपनी बहू ऐशवर्या राय के साथ आने वाले हैं। आने के पहले का नजारा ये है कि हाल में कहीं भी पैर रखने की जगह नहीं है। प्रिंट के कई दर्जन फोटोग्राफर स्टेज के पास पोजीशन लिए खड़े हैं। चेहरे पर खौफ है कि कहीं सही फ्रेम नहीं बना तो संपादक डंडा कर देगा। कमोवेश यही हाल टेलीविजन के कैमरामैनों का है। खैर किसी तरह दैनिक जागरण के रिपोर्टर राजवीर ने मुझे अपने बगल में बैठने की जगह दे दी। उनके बगल में उसी अखबार के एक मठाधीश पत्रकार बैठे हुए थे। जो केवल बच्चन साहब को देखने आये थे। इसी बीच उनका फोन घनघनाया। चूंकि उनके एकदम बगल में था इसलिए फोन करने वाले की धीमी आवाज सुनाई पड़ रही थी। उसने महाशय से पूछा अरे मेरे काम का क्या हुआ? तो इन्होंने बताया कि यार पिछले काफी दिन से तबियत खराब था और आज तो होटल ताज में बैठा हूं, वो अमिताभ की प्रेस कांफ्रेंस है ना इसलिए। तभी एक मेरी मित्र पत्रकार जिनकी अगले साल शादी है, उनके पति का फोन आया। होने वाला पति पूछ रहा है कि यार दिन में फोन नहीं किया? तो वह कहती हैं कि अरे यार बड़ा काम था। अब देखो ना शाम को संपादक जी ने बोला कि अमिताभ बच्चन की प्रेस कांफ्रेंस में तुम्ही को जाना है। क्या यार इतना टाइट शेड्यूल रहता है कि पूछो मत। तभी उसके पति ने फोन अपनी मां को दे दिया तो उऌके कुछ पूछने से पहले ही ये कहती हैं कि मम्मी जी वो अमिताभ की प्रेस कांफ्रेंस में हूं इसलिए आवाज कट रही है।

बुधवार, 11 जून 2008

मंझोले महानगरों की शुरूआत से पहले झोलाछाप हकीमों की एडवर्टाइजिंग

इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस और जयपुर जैसे शहरों के बाहरी इलाकों जहां से ये शुरू होते हैं। सड़कों के किनारे अधबने मकान या दुकानें होती हैं। किसी की नींव भरी होती है। तो किसी में आधी दीवारें उठी होती हैं तो किसी ढ़ाचानुमा मकान में छत नहीं होती हैं। ये अधबने मकान उन लोगों के होते हैं, जो शहर में नये-नये जमीन खरीदते हैं या उन लोगों के, जिनकी सोच रहती है कि भई खरीद के डाल दो, कल बढ़कऊ की शादी होगी, परिवार बढ़ेगा। तो रहने के लिए ज्यादा ठौर की जरूरत पड़ेगी। रिश्तेदारी में कम से कम ये बताने को तो हो जाएगा कि मिश्रा जी का फाफामऊ में भी एक प्लाट है। फोकस हाई रहेगा। इसी के दम पर छोटकऊ की शादी का दहेज ४ लाख रूपये बढ़ जाएँगे। इस तरह के अधबने मकानों से झोलाछाप हकीमों की एडवर्टाइजिंग वाली दुकान चल निकलती है। उन्हें अपने प्रचार के लिए मुंशी पार्टी से होर्डिंग किराए पर लेने का लेने का लफड़ा नहीं रहता। तो एक नज़र डालते हैं उन झोलाछाप हकीमों के एडवर्टाइडिंग के मजनून पर---------------
१- निसंतान, काम में असफल सैक्स रोगी मिले बुधवार को हकीम उस्मानी से, मस्जिद वाला मोड़ करेली इलाहाबाद।
२-सैक्स रोगियों के लिए एक मात्र जगह जहां हैं इलाज की पूरी गारंटी-मिले हर शुक्रवार-हकीम आमिर जुबैर, छाता मार्केट के पीछे, चौक, पुराना लखनऊ।
३-काम में असफल रोगी अब निराश न हो, मिले रविवार को-इलाज की पूरी गारंटी-हकीम आबिद नुरानी, पुराने पुल के सामने, लाल मस्जिद, जयपुर
४- कासिम मलिक का दवाखाना-सैक्स रोगी मिले-बुधवार को-शकरपुर फ्लाईओवर-नई दिल्ली।
ये कुछ ऐसे हकीम होते हैं जो सेक्स रोगियों को बेवकूफ बनाकर हिंदुस्तान के लगभग हर शहर में अपनी दुकान चलाते हैं। इस तरह के एडवर्टाइडिंग दिखनी शुरू हो जाय तो समझ लो कि आप जिस शहर जा रहे हैं वो आने वाला है।

बुधवार, 4 जून 2008

बुंदेलखंड यानी बिकाऊ आइटम




बुंदेलखंड पिछले कुछ समय से खबरिया चैनलों और अखबारों के लिए बिकाऊ आइटम बना हुआ है। उस इलाके के इर्द गिर्द होने वाली घटनाओं को भी ज्यादा बिकाऊ बनाने के लिए लोग बुंदेलखंड का नाम लगा देते हैं। इस दौरान बुंदेलखंड से कई सौ किलोमीटर दूर बैठकर वहां की एक्सक्लूसिव खबरें कानपुर और लखनऊ से बैठकर ही अखबार के लोगों ने दर्जनों वाईलाइन इकट्टा कर लीं। साहब आलम ये है कि बुंदेलखंड का कोई कुत्ता भी आजकल अगर मर जाता तो उसे अच्छा-खासा कवरेज मिल जाता है।आखिर बुंदेलखंड क्यों? विदर्भ क्यों नहीं ? जहां कि स्थिति शायद बुंदेलखंड से ज्यादा बत्तर है। वहां बुंदेलखंड से कई गुना लोगों ने खुदखुशी कर चुके हैं। मुझे इसका एक ये कारण समझ में आता है कि बुंदेलखंड का इस्तेमाल राजनीतिक दल चुनावी मुद्दा बनाकर हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। विदर्भ के साथ ऐसा नहीं हो रहा है। साथ ही बुंदेलखंड में राहुल गांधी ने ज्यादा दौरे किए हैं। एक दिग्गज अँग्रेजी अखबार के लखनऊ संस्करण के पहले पन्ने पर एक खबर छपी है कि (फूड लूट इन बुंदेलखंड) मतलब एक ऐसी वारदात जिसमें रोटियों की लूट हो गई है। ये पहला ऐसा मौका है जब इस इलाके में इस तरह की घटना हुई है। वगैरह-वगैरह। खैर खबर बड़े अखबार के पहले पेज पर थी , तो उसका फॉलो-अप तो होना ही था। आज मैंने वहां से पुलिस अधिकारियों और कुछ स्थानीय लोगों से बात की तो घटना का एंगल छपी खबर के एंगल से एकदम अलहदा निकला। पुलिस अधिकारियों ने फोन उठाते ही नाराजगी जताते हुए कहा कि आप लोग मामले को क्या से क्या बना देते हैं। आप लोग अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं। ऐसा ही रहा तो लोगों की विश्वनीयता खत्म हो जाएगी....वगैरह-वगैरह। मैंने सोचा कि यार अकाल पीड़ित बुंदेलखंड के नाम पर लोग क्या-क्या कर रहे हैं। ये एक चिंता का विषय है। हमें मंथन करना होगा कि अपनी खबरों को सनसनीखेज खोज बनाने के लिए उन पहलुओं को न सामने लाएं जो शायद वास्तविक हैं ही नहीं।

रविवार, 1 जून 2008

जन्नत- है दम


कैंप-भट्ट कैंप(विशेष फिल्म्स)
निर्देशक-कुनाल देशमुख
संगीतकार-प्रीतम


पिछले दिनों भट्ट साहब की नई नवेली पेशकश जन्नत देखा। अपनी हर फिल्म का तरह इस फिल्म में भी भट्ट साहब बॉलीवुड के सामने कई नये चेहरे लाने वाले वादे में खरे उतरे। जन्नत की पूरी नई टीम वाकई तारीफ के काबिल है। जिस तरह फिल्म को आईपीएल रूपी इंटरटेनिंग सुनामी के बीच में रिलीज करने का जोखिम लिया गया था, ऐसे में अगर निर्देशक कुनाल देशमुख की कहानी और निर्देशन में जरा भी ढ़ील होती तो इसका भी हाल टशन से कम बुरा नहीं होता। जैसा कि पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के कोच बॉब वूल्मर की हत्या के बाद भट्ट साहब ने ऐलान किया था कि वह उनके ऊपर फिल्म बनाकर एक ट्रिब्यूट देंगे। वो उन्होंने किया लेकिन सिर्फ २ मिनट के एक सीन में निपटाकर। फिल्म की कहानी उन्होंने बड़ी ही चालाकी से कोच से सट्टेबाज की तरफ घुमा दी। वे भी मजबूर थे, क्योंकि सट्टेबाज का रोल तो उनका भांजा इमरान हाशमी कर रहा था। पूरी फिल्म में इमरान का काम सबसे शानदार है। वह दिन दूर नहीं जब वह एक फिल्म के लिए सात से आठ करोड़ मेहनताना मांगकर खान तिकड़ी को चौंका दें। सीबीआई इंस्पेक्टर का रोल कर रहे समीर कोचर ने भी अपनी पर्सनॉल्टी से दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब रहे हैं। फिल्म के कुछ और सीन अगर उनके हिस्से में आते तो शायद वह जन्नत को इमरानी प्रकोप से बचाने में कामयाब हो जाते। फिर भी लड़कियों ने इमरान से ज्यादा उनकी सैंडविच खाकर केस सुलझाने की स्टाइल को ज्यादा पसंद किया है। फिल्म की पैकेजिंग और संगीत इसकी जान है। पूर्व क्रिकेटरों पर किया गया एक कमेंट बहुत ही प्रासंगिग लगता है। जिसमें सट्टेबाज अर्जुन एक क्रिकेटर को बिकने के लिए नोटों के हरे-भरे सब्जोबाग दिखाते हुए कह रहा होता है कि एक्स क्रिकेटर का कोई फ्यूचर नहीं होता। वे या तो किसी न्यूज चैनल में बैठकर कमेंट्री करते हैं या फिर किसी लाफ्टर शो में बैठकर खीस निपोरते हैं।जन्नत के संगीतकार प्रीतम को तो जैसे युवाओं की पसंद का पासवर्ड मिल गया हो, अभी उनकी पिछली फिल्म रेस के गाने डिस्कोथेकों में बजने बंद नहीं हुए थे कि जन्नत के गानों ने धूम मचाना शुरू कर दिया। फिल्म में सिनेमैटोग्राफी बहुत ही शानदार है। द.अफ्रीकी शहर जोहांसबर्ग से समुद्री किनारों से लेकर, गगनचुम्बी बिल्डिगों और वहां के मैदानों की हरी घास को बहुत ही मास्टरी से दिखाया गया है।