मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

गलतफहमियों की पतंग

नाजुक रिश्तों के धागे में,
आ के लिपट जाती है,
गलतफहमियां की पतंग,
वह ऐसे उलझाती है कि
हम उसे हटाने में उलझा देते हैं पूरा धागे।।
हम बेबस हो जाते हैं,
पर कोई नहीं आता मदद को,
सभी हमें ठहराते हैं जिम्मेदार,
काश, कोई मुझे समझता कि
मैं नहीं हूं पतंगबाज।।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

सिनेमाई पटल पर छाये नौनिहाल


बॉलीवुड में निर्देशकों की नई खेप के आने के बाद सिनेमा की हर विधा में बदलाव नजर आए। कहानी, पटकथा, संगीत से लेकर किरदारों को पेश करने के तरीके में सिनेमा में दबंग हुआ है। निर्देशकों की नई पीढ़ी खतरों से खेलने की बड़ी शौकीन है। तारे जमीन पर में आमिर खान ने दर्शील सफारी को फिल्म का हीरो बनाकर दबंग सिनेमा की मिसाल पेश की है। इस फिल्म में आमिर ने इस मिथ को तोड़कर दिखाया कि बच्चे सिर्फ हीरो के बचपन का रोल ही नहीं कर सकते, अगर उन्हें मौका दिया जाय तो वह ऐसी अदाकारी दिखाएंगे कि फिल्मफेयर की जूरी को बेस्ट एक्टर का चुनाव करते समय पसीना आ जाएगा। हालांकि आमिर से पहले समीर कार्णिक नन्हें जैसलमेर, विशाल भारद्वाज ब्लू अम्ब्रेला, केन घोष की चेन कुली की मेन कुली और साजिद खान की हे बेबी में नई पौध को मुख्य किरदार में पेश करके इसकी झलक दिखा चुके हैं. आज से कुछ साल पहले तक बच्चों में बॉलीवुड ने खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। उनको केवल हीरो का बचपना दिखाने के लिए फिल्म में लिया जाता था। बीच में अगर कुछ गिनी चुनी फिल्में आईं भी, तो वो अमिताभ, शाहरुख और रितिक की फिल्मों के शोर में खो गईं. मगर अब बच्चों को लेकर फिल्में बनाना फायदे का सौदा साबित हो रहा है। जबसे मकड़ी ने ७५ लाख और हनुमान ने तीन करोड़ का बिजनेस किया है तबसे बॉलीवुड ने बच्चों को लेकर और बच्चों के लिए फिल्म बनाने के लिए गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया है। आज बच्चों को एक बड़े उपभोक्ता के तौर पर देखा जाने लगा है।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

लव गुरू बनना सबके बस की बात नहीं


आमतौर पर रेडियो सुनना कभी कभार ही होता है. ठीक उसी तरह जैसे कभी याद आया तो आमलेट खा लिया.पर एक दिन अचानक सोते समय रात को थोड़ा परेशान था, सामने रेडियो देखा तो सोचा कि चलो गाना सुनकर टेशन दूर किया जाय. जैसे ही गाना खत्म हुआ कि एक लड़की की आवाज आई कि लव गुरू मैं एक लड़के से प्यार करती हूं पर वह मुझसे प्यार करता है कि नहीं ये पता नहीं. मैं क्या करू. लव गुरू ?? लव गुरू ने उसे बहुत ही बढ़िया तरकीब सुझाई. उसे बाद एक लड़के का फोन आया कि लव गुरू मेरे ऊपर दो लाख रुपये का उधार हो गया है मैं क्या करूं....लव गुरू ने उसको भी समझदारी से उधार चुकाने की तरकीब बताई. मैंने सोचा कि यार ये लव गुरू की नौकरी तो बड़ी मुड़पिरी वाली है. पोर्टनर में सलमान खान तो भास्कर दिवाकर चौधरी जैसे दो चार और फ्रस्टेटेड के केवल प्यार मुहब्बत वाले केस हंडल करते थे पर रेडियो सिटी वाला लव गुरू तो देशव्वापी समस्यायें हंडल करता है. मैंने सोचा कि यार ये लव गुरू बनना आसान नहीं. ये बिना किसी स्वार्थ के सबकी सेवा करता है. बेचारा एसटीडी फोन भी खुद अपनी तरफ से ही करता है. कहते हैं कि रिश्तों का बंधन इतना नाजुक होता है कि तनिक भी गलतफहमी ये यह टूट जाता है। ऐसे में लव गुरू युवाओं को ऐसे कारगर टिप्स देता है, जिससे बिगड़े रिश्ते भी बन जाते हैं। आखिर में फिर से लव गुरू आपको सलूट मारता हूं कि गुरू तुम दुनिया का सबसे कठिन काम रहे हो।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

नई पीढ़ी के कवि




प्रसून जोशी, जयदीप साहनी, सैयद कादरी, अनुराग कश्यप और नीलेश मिश्रा की कलम एक नये तरह की कविता और कहानी रच रही हैं, ये लोग न तो किसी आनंद बक्शी के पोते हैं और न ही मुख्यधारा के साहित्यकार. ये शब्दों के ऐसे हरफनमौला खिलाड़ी हैं, जैसे ट्वेंटी-२० क्रिकेट के युवराज सिंह और धौनी. ये पद्मावत, लज्जा और फाइव प्वाइंट समवन जैसे उपन्यास नहीं लिखते पर सत्या, रंग दे बसंती, तारे जमीन पर और चक दे इंडिया जैसी फिल्में लिखते हैं, जो किसी सरोकारी उपन्यास से कम नहीं है. इनकी कवितायें आम जनसानस की तस्वीर पेश करतीं है. इनकी कविताओं में अनजान, बक्शी साहब और इंदीवर जैसे गीतकारों द्वारा प्यार, दिल, धड़कन, तड़पन, मुहब्बत जैसे दशकों से चले आ रहे घिसे पिटे ४०-५० शब्द नहीं हैं. इनकी कविता असाढ़ की बारिश की पहली बूंद और सावन की सुआपंखी घास के नये कोपल की तरह ताजी होती है. ये छायावादी कवियों की तरह ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, जिनका अर्थ समझने के लिए हमें पहले व्याकरण में स्नातक होना पड़े. ये ठंड़ा मतलब कोका कोला, आदमी फोन लेता है बात करने के लिए और इसको लगाया तो लाइफ झिंगालाला, चांद सिफारिस.......जैसी लाइनें लिखते हैं, जिन्हें सुनकर आम आदमी को लगता है कि वाकई ये उनकी भाषा है, उनकी आवाज है. न कि केवल प्रोफेसर जटाशंकर शास्त्री जैसे विद्वानों की. चक दे इंडिया का गाना
बादल पे पांव है, या छोटा गांव है....
तारे जमीन पर का
क्या इतना बुरा हूं मैं मां......
रंग दे बसंती का
तुन बिन बताये...
ये ऐसी कवितायें हैं, जिनमें हमारे आस-पास की आबोहवा की महक महसूस होती है. इन्हें सुनकर गुलजार का सीना भी फक्र से कुर्ते के बटन तोड़ता होगा. तभी वह आजकल बीड़ी जलाइले....जैसा सीनाफाड़ हिट गाना लिख रहे हैं. उनके सखा जावेद अख्तर भी बाते साल तेरी याद साथ है.....जैसा नसघोलू जोशीला गाना लिखते हैं. प्रसून और जयदीप भले ही हार्ड कोर ऑफिशियल साहित्कार न हों पर इतना तो है कि ये आम आदमी और बाजार के कवि जरूर हैं. ये नई पीढ़ी के गुलजार हैं.

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

दर्शील सफारी-छोरे में है दम


मार्च में होने वाले फिल्म फेयर पुरस्कारों में दर्शील सफारी को साल के सबसे बेहतरीन एक्टर वाली टोली में नामांकन मिलने से बॉलीवुड़ के मठाधीश मारे चिंता के दुबले हुए जा रहे हैं, कि कहीं नाटू दर्शील बादशाद खान पर भारी ना पड़ जाए. जिसने भी फिल्म देखी है, उसका सारे सिक्स पैक एब्स वाले मेट्रोसेक्सुअल नायकों से मोहभंग हो गया है और वो सिर्फ दर्शील नाम की ही बांसुरी पिपिहा रहा है. वैसे तारीफ करनी होगी आमिर खान की पारखी नज़र की, जिसे जमीन के दस फुट अंदर धंसा खजाना बिना पुरातत्व विभाग का चश्मा लगाये ही नजर आ जाता है. खुद की जेब ढ़ीली करने और चिकने-चुपड़े चॉकलेटी होने के बावजूद भी उन्होंने अपनी फिल्म में दर्शील जैसे उदन्त बछड़े को मैदान में उतारने का चिकनगुनिया रूपी जोखिम लिया. वरना तो आजकल के बड़े स्टार घर की फिल्म में किसी दूसरे को साइड रोल देने में कई दिन घर में डिस्कशन करते हैं. रोल देते हैं भी तो पटकथा लेखकों पर दबाव बनाकर उस किरदार को इतना कमजोर करवा देते हैं कि वो बेचारा पूरी फिल्म में बीमार नज़र आता है.तारे जमीन पर बनाकर आमिर ने इस बार खुद को ज्यादा हिम्मती साबित किया बजाय दिल्ली के जंतर-मंतर में नर्मदा बांध के खिलाफ आवाज उठाने के. बिना छरहरी नायिका और बिना कम कपड़ों वाली आइटम गर्ल के आमिर ने इस साधारण सी कहानी को लेकर बहुत संवेदनशील फिल्म बनाई, मायानगरी के गुलजार पार्ट-२ प्रसून जोशी ने अपनी कविता और शंकर-एहसान-लॉय की बाजा पेटी तिकड़ी ने आमिर का बखूबी साथ दिया. वैसे चक दे इंडिया में काम तो शाहरुख ने भी धांसू किया है. कम से कम फिल्म देखने के बाद हमारी हॉकी टीम ने एशिया कप तो जीता और देश में कुछ महीने लोग क्रिकेट बुखार से चंगे होकर के हॉकी बुखार की चपेट में आये. अवार्ड किसी को भी मिले काम दोनों का शानदार था. बच्चे दर्शील को मिलेगा तो इससे उसे तो हौसला मिलेगा ही साथ ही हौसला मिलेगा दूसरे फिल्ममेकर्स को कम से कम देखादेखी ही फिल्में बनाएँगे, हौसला मिलेगा अमोल गुप्ते जैसे तमाम और नई पीढ़ी के पटकथा लेखकों को.