बुधवार, 11 नवंबर 2009

लंदन ड्रीम्स











निर्देशक-विपुल शाह
बाजा पेटी--शंकर एहसान-लॉय
गीत-प्रसून जोशी







नमस्ते लंदन के बाद निर्देशक विपुल शाह लंदन ड्रीम्स के साथ हाजिर हुए। लेकिन इस बार के लंदन में उनके तुरुप के पत्ते अक्षय कुमार नजर नहीं आये। आमतौर पर अक्षय कुमार को अपनी हर फिल्म का नायक बनाने वाले विपुल शाह ने लंदन ड्रीम्स में सलमान खान और अजय देवगन पर भरोसा दिखाया। जिस तरह एक के बाद एक अक्की की हर फिल्म धराशाही होकर निर्माताओं को कंगाल बना रही है उससे विपुल का कन्नी काटना शायद लाजमी भी था।

खैर विपुल का दांव सटीक बैठा। फिल्म देश विदेश में जोरदार कमाई कर रही है। कहानी से लेकर गीत-संगीत सभी कुछ प्रभावी है। फिल्म शुरू से लेकर क्लाईमेक्स तक सरपट दौड़ती है और दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब रहती है। दो दोस्तों की अटूट दोस्ती और फिर शीर्ष पर पहुंचने एक दोस्त का किसी भी हद तक जाना...को विपुल ने बेहतरीन ढंग से पेश किया और फिल्म के जरिए संदेश दिया कि कला पर किसी का हक नहीं होता।

इस फिल्म को सलमान और अजय देवगन का लाजवाब अभिनय ने यादगार बना दिया। बहुत समय बाद किसी फिल्म में सलमान इतने मौलिक लगे हैं। बार-बार वह जिस तरह से अजय देवगन को चूमकर कहते हैं कि....तू मेरा प्रा(भाई) है..और लंदन के हवाई अड्डे पर पहुंचने पर चेंकिंग करवाते करवाते वह नेकर में आ जाते हैं...बहुत प्रभावी लगता है। अजय देवगन का अभिनय फिल्म दीवानगी में उनके रंजीत के किरदार का याद दिलाता है। उन्होंने साबित कर दिया कि इस तरह की भूमिकायें करने में उनका कोई सानी नहीं है।
फिल्म में सबसे मजबूत पहलू इसके गीत हैं। प्रसून जोशी की कविता में छोटे-मझोले कस्बों और शहरों की आबोहवा और खुशबू होती है। जेबा में तू भरले मस्तियां.......और पेशेवर हवा....इस तरह से शब्द गुलजार को छोड़कर शायद ही पिछले कुछ दशकों में किसी गीतकार की कलम ने उगले हों। शंकर-अहसान-लॉय की बढ़िया कंपोजीशन है। फिल्म का संगीत थोड़ा तेज और लाउड है, लेकिन ये कहानी की मांग के अनुसार फिट बैठता है। हां, अब फिल्म की हीरोइन आसिन के बारे में कुछ बात करते हैं, लेकिन अफसोस फिल्म में सलमान और अजय देवगन के बीच में वह खोकर रह गईं। उनके लिए कुछ बचा ही नहीं था।

सोमवार, 8 जून 2009

मैं वही का वही हूं




कहते हैं कि परिवर्तन यानी बदलाव(चेंज) प्रकृति का नियम है और इससे दुनिया का कोई भी जीव-जंतु अछूता नहीं रह पाता है। लेकिन न जाने क्यों मुझे अपने जीवन में कोई बदलाव नहीं महसूस हो रहा। लगता है कि मैं वही का वही हूं।

चिंतन करता हूं कि पिछले कई सालों में दुनिया कितनी बदल गई पर मैं वही बासी और पुराना हूं। हर तरफ बदलाव की बयार बही। मुल्कों की सरकारें बदल गईं। पिछले एक दशक से ह्वाइट हाउस में जमे रुतबेदार प्रेसिडेंट जार्ज बुश की जगह अमरीका में ओबामा ने गद्दी संभाल ली।
सात घंटे में खत्म होने वाले 50 ओवर के वन डे मैच की जगह ट्वेंटी-20 क्रिकेट के रूप में फटाफट क्रिकेट ने लगभग ले ली।

बालीवुड में यश चोपड़ा, सुभाष घई, सूरज बड़जात्या, रामगोपाल वर्मा की बड़े बजट की भव्य फिल्में भव्य फ्लाप होने लगीं, लोग दसविदानिया, भेजा फ्राई, देव-डी, गुलाल और वेडनेस डे जैसी दो-तीन करोड़ की फिल्मों को सराहने लगे।

टेलीविजन में अब तुलसी और पार्वती के दिन लद गये। शायद दर्शकों को उनसे उतना लगाव नहीं रहा। अब अक्षरा, बेबो, आरोही, ज्योति, गुंजन टेलीविजन के प्राइम टाइम की नई नायिकायें हो गईं।

वैसे बदलाव मैं अपने आस-पास भी देख रहा हूं। पिछले लगभग तीन सालों से लखनऊ में हूं। यहां के कई पार्क कई दफा टूटकर फिर से बन गये। शहर में हरियाली की जगह चारों तरफ पत्थर के हाथी और पुतले उगने लगे। कई बरिस्ता, कैफे काफी डे, मैक-डोनाल्ड्स और मल्टीप्लेक्स खुल गये। लेकिन मेरा जीवन शायद पहले से ज्यादा ऊबाऊ हो गया है।



लब्बोलुआब यह कि सारे जहां में परिवर्तन रूपी आक्सीजन बह रही है, लेकिन मेरी जिंदगी में वही बोरियत और अकेलापन है। नयापन महसूस ही नहीं कर पा रहा हूं। मन अजीब सी उधेड़बुन में लगा रहता है। सोच रहा हूं कि कई सालों से लगातार एक ही रूट पर जा रही जिंदगी की रेलगाड़ी की चेनपुलिंग करके किसी छोटे से स्टेशन पर उतर जाऊं। कोई काम न करूं, जो मन करे वो करूं। बारिश होती रहे मैं किसी जंगल में शरपत के छप्पर के नीचे बैठकर दूर-दूर तक केवल निहारता रहूं।

अरविंद ।।