रविवार, 7 अक्तूबर 2007

फिर वही कहानी


फिल्म-गो
डायरेक्टर-मनीष श्रीवास्तव
रेटिंग **
लगता है राम गोपाल वर्मा और उनकी फैक्ट्री के दिन ठीक नहीं चल रहे हैं. इसलिए फैक्ट्री से निकले हर प्रोडक्ट में लोगों को मिलावट की बू आ रही है. आरजीवी की आग और डार्लिंग के बुरे हश्र के बाद दर्शकों ने नई नवेली फिल्म गो का भी वही हाल किया. ८० के दशक में बॉलीवुड में हीरो-हीरोइन के घर से भागने पर दर्जॆनों फिल्में बन चुकी हैं. ऐसे में गो में कुछ अलग नहीं नज़र आता है. फिल्म में सिवाय गोवा के बीचेज में बेहद कम कपड़ो में नहाती निशा कोठारी के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म डिप्टी चीफ मिनिस्टर के मर्डर के ताने बाने से शुरू होती इंटरवल के तक पहुंचते-पहुंचते खुद को हिंदी फिल्मों के घटियापे से अलग नहीं कर पाती है, लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म मस्तानी चाल से सरपट दौड़ती है. जब डायरेक्टर मनीष श्रीवास्तव का कैमरा केके मेनन और राजपाल यादव की तरफ घूमता है, तो कॉमेडी की फुहार आ जाती है., जो फिल्म के आखिर तक स्टॉलमेंट में रिमझम-रिमझिम बरसती रहती है. बीच-बीच में ऐसे डॉयलॉग आते रहते हैं जो हिंदी फिल्मों के के लेखन को दो कौड़ी साबित करने की पूरी आजादी देते हैं. दो यंग कपल अभय(गौतम) और वासु(निशा कोठारी) अपने पपरिवार से परेशान होकर घर से भागते हैं. रास्ते में उनकी बाइक खराब होती है. आगे वह अनजानी मुश्किलों में फंसते जाते हैं. . थ्रिलर और कॉमेडी का सहारा लेकर मनीष फिल्म को और बेहतर बना सकते थे. लेकिन फिल्म बनाते समय वह बहुत जल्दबाजी में लगे. पता नहीं बॉलीवुड के डायरेक्टर्स की स्क्रिप्ट में केके मेनन जैसे दमदार एक्टर्स के लिए ज्यादा सीन नहीं हेते हैं. बेईमान इंस्पेक्टर नागेश के रोल में वह हर सीन में प्रभावित करते हैं. राजपाल यादव का काम भी बेहतरीन है. पर अब उन्हें अपनी भूमिकाओं को लेकर थोड़ा सतर्क हो जाना चाहिए. कहीं-कहीं वह टाइप्ड लगते हैं. बाकी चीफ मिनिस्टर के रोल में रवि काले पूरी तरह से न्याय करते हैं. गो का म्यूजिक प्रसन्ना शेखर, अमर मोहिले और डीजे अकील ने मिलकर दिया है, पर सुनकर ऐसा लगता है जैसे इनमें से किसी को भी धुनों में थोड़ी बहुत भी मास्टरी नहीं है. परिणीता जैसी फिल्म के गाने लिखने वाले स्वानंद किरकिरे की लाइनें ऊटपटांग और अर्थहीन हैं, जिन्हें समझने के लिए शायद दर्शकों को सिनेमाहॉल से निकलने के बाद अलग से समय देना पड़ेगा.

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